अपनी आँखों से देखता हूँ

apni ankhon se dekhta hoon

अजेय

अजेय

अपनी आँखों से देखता हूँ

अजेय

और अधिकअजेय

    लौटाता हूँ

    तमाम चश्मे तेरे दिए हुए

    कि सोचता हूँ

    अब अपनी ही आँखों से देखूँगा

    मैं अपनी धरती

    लोग देखता हूँ यहाँ के

    सच देखता हूँ उनका

    और पकता चला जाता हूँ

    उन के घावों और खरोंचों के साथ

    देखता हूँ उनके बच्चे

    हँसी देखता हूँ उनकी

    और खिलखिला उठता हूँ

    दो घड़ी तितलियों और फूलों के साथ

    औरतें देखता हूँ उनकी

    उनकी रुलाई देखता हूँ

    और बूँद-बूँद रिसने लगता हूँ

    अँधेरी गुफाओं और भुतही खोहों में

    अपनी धरती देखता हूँ

    अपनी ही आँखों से

    देखता हूँ उसका कोई छूटा हुआ सपना

    और लहरा कर उड़ जाता हूँ

    अचानक उसके नए आकाश में

    लौटाता हूँ ये चश्मे तेरे दिए हुए

    कि इनमें से कुछ का

    छोटी चीज़ों को बड़ा दिखाना

    और कुछ का

    दूर की चीज़ों को पास दिखाना

    अच्छा लगा

    कि इनमें से कुछ का

    साफ़ शफ़्फ़ाफ़ चीज़ों को धुँधला दिखाना

    और यहाँ तक कि कुछ का

    धुँधली चीज़ों को साफ़ दिखाना भी अच्छा लगा

    देखता हूँ अपनी यह धरती

    अब मेरी अपनी ही आँखों से

    जिसके लिए वे बनी हैं

    और देखता हूँ वैसी ही उतनी ही

    जैसी जितनी कि वह है

    और कोशिश करता हूँ जानने की

    क्या यही एक सही तरीक़ा है देखने का!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अजेय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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