नहीं स्वीकारता भवितव्य को

आगे आग

उसका तेज़

उसका प्रकाश

सुंदर सम्मोहक

उलाँघ सकता है भला कोई

उसका आकर्षण?

सामान्य बारिश की बूँदों की तरह

झिलमिल दो डैने मेरे स्थिर नहीं रहते

प्रकाश के अनुसार

भागती चली जाती है

मेरी आतुर सत्ता

भागती ही चली जाती है...

उलाँघती हुई अँधेरा और पृथ्वी

तेज़ बहाव में

बह जाती है

कहाँ चली जाती है?

आलिंगन-मुद्रा में तटस्थ

मेरा क्षणजीवी शरीर

आतुर डैने

मेरा क्षणिक प्राण

प्रकाश-पिपासा से

बना जीवन मेरा

भागता चला जाता है...

झूठे साबित हो जाते हैं

उपदेश सारे

आख़िर अँधेरे में

क्यों डूबा रहूँ मैं?

क्यों हैं ये उपदेश?

इस एक दिन के

जीवन के लिए ही ना?

नहीं, एक दिन नहीं

बस

इसी क्षण के लिए

हो मेरा जीवन

अपने भयावह कल को

जानता हूँ मैं

जानता हूँ विधाता

तुम्हारे कठोर विधान को भी

लिखे रहता हूँ

शरीर के फलक पर

फिर भी

नहीं स्वीकारता भवितव्य को

नहीं स्वीकारता...

स्रोत :
  • पुस्तक : आधा-आधा नक्षत्र (पृष्ठ 18)
  • रचनाकार : प्रतिभा शतपथी
  • प्रकाशन : मेघा बुक्स

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