आवाज़ तेरी है

awaz teri hai

राजेंद्र यादव

राजेंद्र यादव

आवाज़ तेरी है

राजेंद्र यादव

और अधिकराजेंद्र यादव

    यह तुम्हारा स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

    —कि जैसे डोर बंसी की तड़पती मीन को खींचे

    —कि जैसे ज्योति की रेखा, पथिक ध्रुवहीन को खींचे

    —कि जैसे दीप की लौ को अरुण का सारथी टेरे

    —कि जैसे ऐंद्रजालिक मोहिनी से चेतना घेरे

    सिसकती धार को जैसे कि सागर खींच लेता है—

    लहर की बाँह फैलाकर।

    अचानक यों मुझे झकझोर कर किसने जगा डाला?

    अँधेरे के नक़ाबों में स्वयं मुझको बुलाता-सा

    चला जाता,

    —कि बादल में उलझ कर धूप पावस की

    सरकती भागती जाती

    बिछी हरियालियों, अमराइयों के पार!

    क्षितिज-सा भागता यह स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

    मगर यह कौन है

    जो यों समय-असमय बुलाता है?

    यही स्वर एक दिन

    चुपचाप हातिम के हृदय में फूट उछला था

    कि जैसे क्षुब्ध ज्वाला-मुखि!

    —निदा की वह पहाड़ी गूँज!

    सालस अज़दहों-से सुप्त लेटे कुंडली मारे पहाड़ों को

    उफनती सर्पिणी-सी दौड़ती-फुफकारती नदियाँ,

    विचारों के कँटीले झाड़-से उलझे घने जंगल

    बुझे दिल से चिलकते धूप में निर्जल—

    बगूलों में गरजते-गूँजते विस्तीर्ण रेगिस्तान

    खिंचती डोरियों-सी झूलती-मुड़ती तनी सड़कें

    चमकती पटरियों की रेख

    कातर-सी सहस पग दौड़ती रेलें

    —सभी कुछ लाँघता चलता चला जाता

    बेसुध, बेहोश!

    —‘‘कहीं है एक

    जो मुझको बुलाता है।’’

    यहीं तो एक स्वर है

    जिसको मैं झुठा पाता,

    झुठाया आप अपने को।

    वही आवाज़ आती है।

    मुझको रोक, पथ दे छोड़,

    इस आवाज़ का मुझको कि उद्गम छोर छूना है!

    जहाँ पर एक है कोई कि मेरी राह में बेठा

    गिना करता कनेरी उँगलियों की पोर।

    सत्य है यह

    भूख से ठिठुरे हुए इंसान की शिशु-हड्डियों के तख़्त पर

    बैठा हुआ भगवान

    मेरा सिर झुकाने में हमेशा ही रहा असमर्थ

    मेरे भाग्य को

    ये अधोमुख लटके हुए नक्षत्र छू पाए नहीं।

    औ’ जगत-जीवन के जटिल गंभीर प्रश्नों को पल भर टाल

    अपना बोझ सारा भूल

    पाया गिन कभी सूनी लकीरें हाथ की मैं।

    आज की तारीख़ तक मैंने टटोले ही नहीं हैं

    भाव-कंपित उँगलियों से मूक बेबस

    झुकी भौहों पर उभरती सलवटों के मोड़!

    —हार का अभिषेक!

    किंतु तब भी, एक यह विश्वास

    मेरी आत्मा से उठ हृदय में गूँज

    जलमय पुतलियों पर, तैर कहता—

    ‘‘कहीं कोई राह मेरी देखता है।’’

    ओ, भविष्यत् के क़िले में क़ैद

    रानी स्वप्न की,

    मैं काल-सागर पर क्षणों की लहरियों से जूझ

    लघु व्यक्तित्व की नौका धकेले

    चल पड़ा हूँ खोजने वह तीर

    जिसके क्षितिज सिकता किनारे पर

    महा-सुनसान में

    खोले वातायन दुर्ग के

    टेके हथेली पर चिबुक

    तू झाँकती दिन-रात

    सूनी दृष्टि से चुपचाप!

    बूँदें कोरकों से ढुलकती हैं

    —खोई ताकती अनिमेष

    सपने भेजती हैं।

    और सपनों की निरंतर गूँजती आवाज़

    कितनी दूर

    कितनी पास!

    निर्मम टेर,

    रुक ज़रा

    मुझको कभी आराम करने दे,

    कभी कुछ साँस लेने दे!

    मगर तू कौन है

    हे, स्वर?

    —कि निर्दय ठेलता जाता

    पीछे घूमने देता

    निगाहें बाँध डाली हैं

    —कि जैसे मंत्र की कौड़ी विवश-से सर्प को खींचे

    —सलज सौंदर्य का जादू असुर के दर्प को खींचे,

    थकन, अवसाद के विष को

    कली-से ओंठ चुंबन में कि जैसे खींच लेते हैं

    —पराजित स्वर्ग का वैभव मृणाली बाहु-बंधन में!

    यह किसी का स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

    हज़ारों टूटती साँसें,

    कराहें, चीख़, आहें, व्यंग्य, ताड़न,

    —कि बढ़ता जा रहा है कुछ

    किंतु तम के बीच में यह तड़ित जैसी टेर

    किसी स्निग्ध कंपन के मधुर आरोह

    —मेरे कान युग-युग से इन्हें पहचानते हैं

    नित्य परिचित है हृदय, मन, आत्मा सब

    क्योंकि इसके गाढ़े आलिंगन में बँधे वे

    अलस सपनीली बदलते करवट कब से।

    —कि मेरे कान की लौ को

    नशीली भावविह्वल साँस से छूती

    लरजती-सी टेर

    केवल एक तेरी है।

    इंद्रधनुषों के मुलायम दायरे

    यहीं मुझको लिए जाते

    —कि यो उँगली पकड़

    अजानी घूमती पगडंडियों की ओर

    चंपई उँगली,

    गुलाबी नख,

    किरन की डोर-सी चूड़ी

    सरल आग्रह भरा यह दान,

    कितना प्यार।

    सच, मैं मुड़ पड़ूँगा।

    मैं विवश हूँ,

    यह किसी का स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

    कौन मुझसे कह रहा हर बार

    रुकना असंभव है!

    घूम पीछे देखने का अर्थ होता है

    हज़ारों मूर्तियों में एक अपने को गिना।

    —ये निशानी उन थकित मजबूरियों की है

    भटक कर मोड़ में

    या इस बवंडर में हुए दिग्भ्रांत

    पीछे घूम पड़ते थे।

    हरगिज़ रुक,

    पीछे देख,

    झूठा मोह, झूठा प्यार।

    मत सुन, ये पुकारें झूठ!

    उस पहाड़ी शिखर की यह राह

    मंज़िल तक

    जहाँ रोती पड़ी हैं वे कुंजियाँ

    दिन-रात कहतीं—

    ‘‘सुनो, हमको खा रही है ज़ंग

    उस दुर्ग का वह तिलस्माती जाल टूटेगा

    तुम्हारे स्वप्न की रानी जहाँ पर क़ैद बैठी है।’’

    वहीं वह तलवार है,

    जो गल रही, बेकार।

    नहीं पहुँचा हाय, जो झपटे, उठा ले

    काट डाले शीश दानव के

    —कि तेरे भाग्य की सीता हृदय से लगे।

    धो ले लहू से केश

    रक्तिम माँग भर ले।

    वहीं सूखा जा रहा है अमृत-घट।

    ***

    हर क़दम पर खड़ी थक कर

    पत्थरों की मूर्तियाँ ख़ामोश आँखों से कहेंगी :

    ‘सुनो,

    हम भी तो तुम्हारी ही तरह थे!

    एक छलना, एक तृष्णा हमें भी खींचा किए थी

    अब यहाँ हम चुक गए हैं।

    एक पल रुक ले तू भी?’

    लेकिन ख़ूब सुन ले,

    यह पराजय, भीति, आँसू

    यदि ज़रा भी रोक पाए गति तुम्हारी,

    यदि ज़रा भी बन गए दुविधा हृदय की

    एक झटका, मंत्र-सा

    ज्यों तीर बिजली का तड़पकर बेध जाए

    मील का पत्थर बना-सा मूर्तियों में जा मिलेगा!

    बाँह फैलाकर तुझे ये बाँध लेंगी।

    यह बड़ी दुर्गम डगर है

    यह छुरे की धार—‘सूली पर पिया है’

    हर क़दम पर मोड़,

    लेकिन मोड़, चढ़ने की कला है!

    कुछ नहीं,

    मैं कुछ नहीं सुनता

    समझने ही नहीं देता मुझे यह अंध आमंत्रण

    —किसी का स्वर मुझे बाँधे लिए जाता!

    हमेशा एक-सा स्वर है

    सदा सपने उगाता है।

    हृदय के गुंबदों में गूँजता उठता!

    घुटे-से धूम्र में धुँधली लपट का शीश

    —जैसे फन!

    अजाने हिम शिखर पर बैठ कोई बाँसुरी फूँके

    कि राधा-सा रगों में कुछ मचलता है,

    मृगों की साँस के धागे लपेटे जा रहा निष्ठुर।

    चला जाता मैं

    विवश,

    गलते युधिष्ठिर-सा!

    किसी का स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आवाज़ तेरी है (पृष्ठ 19)
    • रचनाकार : राजेंद्र यादव
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1960

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