पराजय

parajay

महेश आलोक

महेश आलोक

पराजय

महेश आलोक

और अधिकमहेश आलोक

    उस समय जितने लोग थे सभी लोग चुप थे

    और यह मुद्रा लगभग असुविधाजनक थी

    कि लोग चुप थे और

    एक दूसरे का मुँह देख रहे थे

    और यह वह समय था जब किसी सांस्कृतिक सच की हत्या हो चुकी थी

    यह तो तय था कि वह शोकसभा नहीं थी लेकिन

    लोग इतने चुप थे कि उस सभा को

    विचारसभा भी नहीं कहा जा सकता था

    वे बहुत-बहुत चेहरे बहुत-बहुत डर में डूबे थे

    चेहरों की इस वास्तविकता में कुछ चेहरे अपनी त्वचा से

    साहस इस तरह टपका रहे थे कि साहस

    भय की तरह टपक रहा था

    वे तमाम बौद्धिक जैसे लगने वाले लोग नहीं थे जो इकट्ठा थे

    और यह हमारे समय की इतनी बड़ी सभा थी जितनी आमतौर पर

    दिल्ली गेट के बग़ल में कबूतरों या किसी गिद्ध की मृत्यु पर

    गिद्धों की नहीं होती है

    असल में वे चुप्पा लोग इतने चुप थे

    कि एक पूरी पराजय

    अपनी चुप्पी में बोल रहे थे

    स्रोत :
    • रचनाकार : महेश आलोक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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