महामारी के दिनों में

mahamari ke dinon mein

अनुराग अनंत

अनुराग अनंत

महामारी के दिनों में

अनुराग अनंत

और अधिकअनुराग अनंत

     

    एक

    मैं कहाँ हूँ इन दिनों 
    पूछोगे, तो बता नहीं पाऊँगा

    आँखों के नीचे जमता जा रहा है 
    जागी हुई रातों का मलबा 
    सिर में सुलगते रहते हैं न जाने कैसे-कैसे ख़याल 
    छत से देखता रहता हूँ गंगा के किनारे जलती हुई चिताएँ

    एक मौन है, जहाँ मैं हूँ या नहीं
    ठीक-ठीक कह नहीं सकता 
    एक चीख़ है, जिसके दोनों सिरों पर मेरे दोनों पाँव की चप्पलें अल्टी पड़ी हैं

    मैं जहाँ कहीं भी हूँ
    नंगे पाँव हूँ 
    छिले हुए घायल पाँवों से ही पार करना है मुझे यह समय 
    यह मौन और यह चीख़। 

    दो

    सूखे हुए फूलों को देखकर बहुत रोए हैं हम 
    फूलों को सूखते हुए देखकर पहली बार रोए 
    पछताए, अपराधबोध में डूब गए 

    मरे हुए हो देखना और मरते हुए को देखना 
    एकदम अलग-अलग चीज़ है 

    लोगों ने गुहार लगाई, हमें बचा लो 
    और उनकी आवाज़ सुनकर हम मर गए 
    एक मौत, कई मौतें

    जिनको मरना था महामारी की मौत मरे 
    जो बच गए, वे भी कम नहीं मरे हैं
    महामारी के दिनों में।

    तीन

    जिनकी आँखों के सामने मर गए उनके प्रिय 
    एक-एक साँस के लिए तड़पकर 
    उनके सामने अब कैसे गाओगे राष्ट्रगान 
    कैसे लगाओ सत्ता की कीर्ति के जयकारे 
    कैसे माँगोगे वोट 
    कैसे दोगे भाषण 

    इतना सब होने के बाद भी
    तुम सब कर सकते हो 
    तुम सब करोगे 

    इतना सब होने से पहले ही
    तुम सब कर सकते थे 
    तुमने कुछ नहीं किया 

    तुमने बचा ली कुर्सी
    गँवा दिए लोग। 

    चार

    आसमान में उड़ रहा है काला धुआँ 
    लोग बदल गए हैं धुएँ में 
    हवा में उड़ रही है कालिख
    शहर भर का चेहरा काला है 

    इस बार जब बरसात होगी 
    पानी की जगह आँसू बरसेंगे
    मर चुके लोगों को मौक़ा ही नहीं मिला 
    मर चुकी सरकार की लाश पर रोने का। 

    पाँच

    अब उस आदि प्रश्न का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं
    जिसमें तुम पूछते थे, कैसे हो?
    और मैं यूँ ही कह दिया करता था
    ठीक हूँ

    ठीक हूँ, कहने का अब सामर्थ्य नहीं बचा
    झूठा हूँ, निर्दयी नहीं
    अपने ऊपर इतना बड़ा अत्याचार नहीं कर सकता
    इस समय ठीक हूँ, नहीं कह सकता

    सत्य बस यही है, अभी मरा नहीं हूँ
    बचे होने का अर्थ ठीक होना नहीं होता
    मैं हूँ, बस हूँ
    स्वस्थ, अस्वस्थ, ठीक और बीमार होने के पार कहीं
    मैं हूँ, बस हूँ
    इस समय इस तरह होना भी मृत्यु से कम पीड़ादायक नहीं

    शोक और मृत्यु के इस समय में थोड़ा-सा शोक मेरे लिए भी मना लिया जाए
    बिना ये पूछे कि कैसे हो?
    बिना ये जाने कि अभी मरा नहीं हूँ मैं।

    छह

    सरकार ने कहा :
    आत्मनिर्भर बनो 
    और हम आत्मनिर्भर बन गए

    ख़ुद ही बीमार हुए
    ख़ुद ही दवा ढूँढ़ते रहे
    ऑक्सीजन तलाशी
    अस्पताल का पता पूछा
    और फिर ख़ुद ही मर गए

    लाशें जलने के लिए लाइनों में लग गईं
    कुछ अपने आप ही नदियों में बह गईं

    हमने सरकारों को इतनी गंभीरता से लिया
    जितनी गंभीरता से सरकारें भी ख़ुद को नहीं लेतीं

    हमारी बस एक ही ग़लती थी
    हम सकारात्मक होने के नाम पर सरकरात्मक हुए

    हम इतने आत्मनिर्भर हो गए कि
    हमने मरने के लिए मृत्यु की भी प्रतीक्षा नहीं की
    ऑक्सीजन, दवाओं और अस्पतालों की कमी से ही मर गए

    हम मरने के लिए मृत्यु पर आश्रित नहीं थे
    हमें मरने के लिए आत्मनिर्भर बनाया गया था।

    सात

    कविताओं में सुंदरता अखरने लगी है
    समय आईने के सामने खड़ा है 
    और दर्पण में उभर आई है एक विकृत कविता 

    इस वक़्त आसमान में उगा इंद्रधनुष अश्लील लग रहा है 
    और विद्युत शवदाह गृह की चिमनियों से उठ रहा है काला धुआँ 
    लोग बदल रहे हैं
    पहले लाश में फिर बादलों में
    इस बार सावन में पानी की जगह तेज़ाब बरसेगा?

    देश ऑक्सीजन की लाइन में खड़ा सिलेंडर भरवा रहा है
    प्रधानमंत्री अपना घर बनवा रहा है
    लोग मर रहे हैं
    जो बचे हैं कभी प्रार्थना करते हैं
    कभी ग़ुस्सा, कभी आत्महत्या

    एक मन कहता है आँख मूँदकर सकारात्मक हो जाऊँ
    एक मन कहता है आँख फाड़कर देखूँ जिगर चीर देने वाले इस दृश्य को
    ताकि विश्वास हो सके
    सब कुछ ख़त्म होने के बाद भी
    बची रहती है, बचे रहने की एक उम्मीद

    जो बचेंगे इसी उम्मीद के सहारे बचेंगे
    और आने वाली नस्लों को बताएँगे
    महामारी के साल भी
    सावन में पानी ही बरसा था
    तेज़ाब नहीं!

    आठ

    इन दिनों इतना दुःख है कि
    दुःख शब्द ने अपना अर्थ खो दिया है
    इतने आँसू हैं कि
    रोना श्वास लेने जैसा हो गया है
    इतना मौन है कि
    भाषा अवकाश पर चली गई है
    इतना एकाकीपन है कि
    अवसाद बन गया है स्थायी निवास
    लोग इस तरह विदा हो रहे हैं कि
    पेड़ों से टूट रहे हैं पत्ते और मन ही मन सोच रहे हैं हम
    स्वाभाविक है यह
    मृत्यु इस तरह पवित्र है कि
    उसके सिर पर कोई दाग़ नहीं
    सरकार इस तरह अपराधी है कि
    क़साइयों को वह उनकी सहोदर लगने लगी है
    नागरिक इस तरह असहाय हैं कि
    बलि के बकरों की तरह देख रहे हैं भविष्य
    कवि इस तरह विवश हैं कि
    वे कविता भी नहीं लिख सकते
    महामारी के दिनों में।

    नौ

    मैं नहीं जानता उस पार तुम मिलोगे या नहीं
    तुम नहीं जानते उस पार मैं मिलूँगा या नहीं
    हम नहीं जानते उस पार हम मिलेंगे या नहीं

    फिर भी उस पार चलना है हमें
    उस पार, जहाँ स्पर्श पर प्रतिबंध नहीं होगा
    दूरी बनाए रखने का परामर्श नहीं देंगे चिकित्सक
    जहाँ जी भर गले मिलेंगे हम
    मन भर रोएँगे उनकी याद में
    जो डूब गए महामारी की नदी में

    इस पार ढंग से रोया भी नहीं जा रहा
    बिना कांधे पर सिर रखे कहाँ निकलते हैं आत्मा के आँसू।

    दस

    यथार्थ को नकारात्मकता कहने वाले जादूगरों से कह दो :
    अभी इतने सकारात्मक नहीं हुए हैं हम कि
    पुल पर खड़े होकर देखें
    गंगा की रेत में दबी हुई लाशें
    और कहें कितने रंग-बिरंगे उगे हैं फूल
    कितना प्यारा बग़ीचा है यह

    रोगियों के पीले चेहरे को अमलतास कहना नहीं आया है हमें
    गंगा में बहते शवों में राजा सगर के पुत्र नहीं दिखते
    राजा को बचाने के लिए हम अपनी आत्मा नहीं मार सकते
    अभी इतने सकारात्मक नहीं हुए हैं कि
    कफ़न बेच सकें महामारी के दिनों में।

    ग्यारह

    तुम जिसे भी मानते हो
    ईश्वर, सत्ता या शक्ति
    जिसे भी पूजते हो तुम
    उसकी क़सम देता हूँ तुम्हें
    जो साँस-साँस के लिए तड़पकर मरा हो
    उस आदमी के अनाथ बच्चों के सामने
    उसकी विधवा पत्नी के सामने
    उसके असहाय माता-पिता के सामने
    उसके संबंधियों, उसके मित्रों, उसके परिचितों के सामने
    भूलकर भी मत कहना :
    आपदा में अवसर होता है
    मैं नहीं चाहता कि चेहरे पर नक़ाब लगाने के इस मौसम में
    किसी के चेहरे से नक़ाब उतरे।

    बारह

    जिसने देख लिया हो
    माँ की गोद में मरता हुआ बच्चा
    नदी में बहती लावारिस लाशें
    गंगा के तट को शमशान में बदलते
    वह अब पहले जैसा कैसे रह सकेगा? 

    दम तोड़ते नागरिक और हाथ खड़े किए हुए सरकार
    दुर्भाग्य से एक ही दृश्य में शामिल हैं

    वे आँसू जो बहुत रोने के बाद भी नहीं बह सके
    यदि बह चलें राष्ट्रगान की कोई पंक्ति गाते वक़्त 
    और खारा हो जाए समूचा राष्ट्रगान
    तो क्या किसी सरकार को यह अधिकार होगा कि वह आपत्ति कर सके

    नागरिकों की वे पीड़ाएँ जिन्हें कहीं जगह नहीं मिलती
    वे राष्ट्र के प्रशास्ति-गानों के सामने प्रश्न-चिह्नों की तरह खड़ी हो जाती हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुराग अनंत
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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