देखता हूँ

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बोधिसत्व

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    अपनी ही

    टूटी हुई पत्तियों की मालाएँ

    पहन कर खड़े हैं जैसे पेड़!

    ऐसे खड़ा हूँ

    अपने घर के बड़े गवाक्ष पर मौन!

    कटे हुए सिरों पर अभी भी बँधी हों

    सुंदर पगड़ियाँ वैसी सुबह चमकती है बाहर

    कटी हुई अँगुलियों में दमक रही हो

    नग जड़ित अँगूठियाँ जैसे

    वैसी शाम होती है

    लुभावनी पुकारती और

    दुत्कारती हुई!

    घोड़ों की प्रतीक्षा में खड़े रथों को

    घुन खा रहे हैं जैसे

    ऐसी लुप्त होती अनेक भंगिमाएँ

    द्रवित हो रही हैं बिना सूचना के

    जलाए जा चुके पैरों की

    जैसे प्रतीक्षा करते हैं छूट गए जूते

    वैसे किसी प्रतीक्षा में बैठा हूँ!

    हल्दी पड़ी है सिल पर—

    जलहीन

    उसकी उपयोगिता ख़त्म हो जैसे

    माथे का पोछा गया तिलक

    ऐसे धुँधला बिखरा-सा दिखता मुख

    समय का।

    सब कुछ वैसा ही अनिश्चित है

    जैसे खड़े पेड़ को नहीं पता कि

    वह काटे जाने पर चूल्हे में जलेगा या चिता में या

    समिधा में पड़ेगा स्वाहा के साथ!

    राह में किसी स्त्री का हाथ भी छू जाने पर

    चिंता से गलने लग जाता है मन

    पानी में डाले नमक-सा!

    मेरे पास उम्मीद वाले शब्द बहुत कम होते जा रहे हैं

    जो रास्ता दिखाए वैसे प्रकाश की आवश्यकता

    मिट गई हो जैसे

    ऐसे जलता-बुझता है सूर्य!

    घर मरण का प्रतीक्षालय भर है अब

    यह कहते ग्लानि से गड़ जाता है मन

    जैसे मैं किसी घोसले में रखा जलता हुआ कोयला हूँ

    धीरे-धीरे जल रहा है

    सब कुछ।

    किसे पुकारूँ किसे टोक कर कहूँ

    कि ऐसे उदास नहीं होते

    ऐसे बिना सुस्ताए छहाए तो मृतक को भी नहीं ले जाते शमशान!

    किसे कहूँ कि रुको मैं एक कंधा भी हूँ

    और एक शव भी हूँ

    और एक स्वप्न भी!

    जीवित की कपाल-क्रिया का चलन क्यों चलाया कृष्ण तुमने

    यह देश प्रभास क्षेत्र जैसे होता जा रहा है :

    मत्त और निठुर!

    किसी को नहीं देता सुनाई

    ऐसे दे रहा हूँ मैं दुहाई!

    नदी के अथाह मैले

    पानी में डूबते लोटे की-सी करुण ध्वनि

    डुबाती भरती-सी

    भरता डूबता जाता मैं प्रतिपल

    बाहर देखता हूँ

    जबकि नहीं है वैसा कुछ भी दर्शनीय

    फिर भी लौट-लौट

    देखता हूँ बाहर!

    स्रोत :
    • रचनाकार : बोधिसत्व
    • प्रकाशन : कल्चर बुकलेट

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