देश

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विनोद दास

और अधिकविनोद दास

    वह इसके बारे में कुछ ज़्यादा नहीं जानता

    कील पर घूमते हुए ग्लोब पर तो क्या

    उसने इसे कभी काग़ज़ के नक़्शे पर भी नहीं देखा

    देश के बारे में इसकी समझ

    सिर्फ़ आठ किलोमीटर है

    जहाँ से आई एक स्त्री

    गीली लकड़ियाँ फूँक-फूँक कर

    उसे आलू, चोखा और गर्म भात खिलाती है

    बताने की ज़रूरत नहीं

    कि देश उसके लिए सिर्फ़ बेदख़ली है

    सिर छिपाने के लिए

    चाहे रेल पटरी के किनारे नीली मोमजामे की छत हो

    या हो शहर में आवारा बिखरे सीमेंट पाइप

    घर के लिए

    इस महादेश में

    कोई ऐसी जगह नहीं

    जिसके पक्के काग़ज़

    उसके पास हों

    वह कभी नहीं करता देश-प्रेम की चर्चा

    यह उसके लिए शोक की घड़ी है

    बस हो जाता है वह

    गुमसुम और ख़ामोश

    उसके डबडबाते आँसुओं में झिलमिलाने लगता है

    वह शांत निस्तेज चेहरा

    जो राष्ट्रीय ध्वज में लिपटा

    सरहद से उसके घर लौटा था

    देश-प्रेम

    उसके लिए खेल भी नहीं है

    वह कई दफ़ा उनसे करता है ईर्ष्या

    जो क्रिकेट मैच में

    चेहरे पर राष्ट्रीय ध्वज बनाकर

    जयघोष से भर देते हैं आकाश

    टीवी एंकरों की बहसों में

    इन दिनों बेतरह आता है यह शब्द

    सबका बढ़ जाता है रक्तचाप

    खौलने लगता है ख़ून

    आँखों के सामने तैरने लगते हैं

    काल्पनिक दुश्मनों के कटे हुए सिर

    इसे बुरा सपना समझने की भूल मत करें

    यह एंकर विषैले वायरस से भी अधिक ख़तरनाक है

    यह दुष्ट आपके पड़ोसी से बोलचाल बंद करा सकता है

    शहर में दंगा करा सकता है

    फ़ुज़ूल की लंतरानियों की ओट में

    आपकी तकलीफ़ और आपका अन्याय छिपा सकता है

    इससे बचना होगा उसे महामारी की तरह

    टमाटर की अपनी फ़सल सड़कों पर भी फेंक कर

    उसे जीना होगा

    अगले बरस कपास के सुंदर फूल देखने की लालच में

    पोटाश खाने से उसे बचना होगा

    देश ख़तरे में है सुनकर

    उसे समझना होगा

    यह और कुछ नहीं

    सिर्फ़ उसकी ग़रीब जेब काट कर

    विदेशों से महँगे हथियार ख़रीदने की तैयारी है

    उसके लिए कहना मुश्किल है

    कि विकास एक सुंदर फ़ंतासी है

    या है एक ऐसी सड़क

    जिसकी रास्ते में कभी नहीं आता है उसका घर

    इसके नेपथ्य में बिकता है

    हमारा पानी, खनिज,

    रेल या हवाई अड्डा

    चंद अमीरों को

    यह क्यों होता है

    यह सवाल पूछना यहाँ जुर्म है

    इस पर फ़िलहाल मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूँ

    अगर आपको मुझ पर शक है

    मेरे साथ उन क़ैदखानों में आइए

    जहाँ सवाल पूछने वाले तेज़ दिमाग़ बंद हैं

    साधो! आपको ग़लत लग सकता है

    लेकिन सच तो यही है

    नक़ली देशप्रेम अफ़ीम-सा नशा है

    दिमाग़ बन जाता है इसका ग़ुलाम

    क्या उसे पता है

    जब तक उतरेगा उसका यह सम्मोहक नशा

    अंधे न्याय की क़लम से

    तब तक उसका कच्चा घर ढह चुका होगा

    पूरी तरह से!

    स्रोत :
    • रचनाकार : विनोद दास
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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