नमक

namak

ब्रजनाथ रथ

और अधिकब्रजनाथ रथ

    जिसने कभी तोड़ डाला था

    एक सम्राट का उपनिवेश;

    वही अब गढ़ने लगा है

    एक और साम्राज्य,

    एक और—

    सौदागरों-वणिकों का।

    दांडि सागरतट वाला

    नमक का हांडी—

    जो कभी थी

    समग्र भारत थी

    करोड़ों जनता की

    सोने की हुंडी...

    अटल विश्वास का।

    हाय री किस्मत!

    वही आज...

    वणिक के मुनाफ़े की मार से

    टूटकर सौ टुकड़े!

    कासों कहें?

    क्या बस यूँ ही—

    माथा पीटते रहें?

    दिल्ली से दांडि

    एकाम्र से इंचुड़ी....

    आज बहुत दूर

    आज बहुत दूर है।

    कहाँ गए साबरमती के संत?

    कहाँ गई उनकी

    अदम्य शक्ति से उद्दीप्त—

    वह लंबी लाठी?

    कहाँ गया उनके सपनों का भारत?

    कौन देगा इसका सटीक उत्तर?

    किससे पूछें??

    उत्तर पूछने पर

    निःसंकोच वे लोग—

    उँगली से इशारा कर देंगे,

    संग्रहालय की ओर;

    बड़ी सुंदरता से जहाँ—

    सजाकर रखे हैं,

    बापू की फोटो और लाठी...

    चश्मा और चप्पल।

    पर कहाँ हैं बापू?

    कहाँ हैं उनके वह

    दृप्त चरण-चिह्न?

    तलाशने पर सबकुछ होगा अकारण,

    आँखों में उभर आएगा केवल...

    एक अदृश्य विस्मय-चिह्न।

    नमक

    जो कभी था—

    करोड़ो ह्दय का स्पर्द्धित स्वाभिमान,

    जिसके लिए उठता था

    कोटि-कोटि कंठ से आह्वान—

    वही आज वणिक के बंदीगृह का

    व्याकुल वसुदेव;

    कौन है जो करेगा उसका उद्धार?

    डाकू के ही हाथों में तो आज

    चमकता है प्रशासन का चाकू!

    आज तो बीच रास्ते पर चल रहा

    सुरा की सुराही का निर्बाध जुलूस,

    नगर की हर दीवार पर—

    नग्न नारी की निर्लज्ज प्रदर्शनी!

    गणतंत्र की रंगशाला में

    विवस्त्र द्रौपदी की साड़ी;

    निरन्न के माथे के पसीने से—

    सूख-सूख कर झड़ता

    लवणचामरी।

    चारों ओर खुले आज

    शोषण के चौंसठ द्वार;

    नमक के बिना,

    बासी भात के बर्तन में—

    असहाय मुँह देखता है

    अभागे का फीका संसार।

    लाँघने को यह

    शोषण का दुर्गम गिरिपथ,

    एकबार फिर चाहिए दोस्त—

    बापू की वही

    लंबी मज़बूत लाठी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन ओड़िया कविता (पृष्ठ 16)
    • रचनाकार : बृजनाथ रथ
    • प्रकाशन : भारतीय साहित्य केंद्र
    • संस्करण : 2013

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