भरोसा

bharosa

सारुल बागला

और अधिकसारुल बागला

    मैंने उससे कहा कि

    मैं अब भी भरोसा करता हूँ कि

    मौसम हरा होगा

    मैंने इनकार किया और

    मेरी कविताओं को इत्मिनान दिया

    गीतों को हौसला देता रहा कि

    ज़रूरत बनी रहेगी

    मैंने कहा :

    मैं तड़प रहा हूँ

    और मेरे भीतर की रेत तप रही है

    अपनी सहूलियत से यक़ीन करने वाले लोगों को

    यह बात मज़ाक़िया लगी

    उन्होंने मज़दूर के फावड़े पर रखी सब्ज़ी को

    एक मज़ाक़ की तरह याद रखा

    और अपने बच्चों को कहानियाँ सुनाईं

    एक उम्मीद थी कि

    कहानी शुरू से शुरू होगी

    लेकिन नई पीढ़ियों ने बीच से पकड़ीं—

    अगली कड़ियाँ...

    इस तरह बहुत सारे मंज़र ऐसे ही बीतते रहे

    लोगों को अजीब-अजीब चीज़ों से परेशानी थी

    मैं परेशान रहता कि

    मौसम में उमस ज़्यादा है

    मेरे पड़ोसी मुझसे परेशान रहते

    और जब उनका अच्छा मौसम होता

    तो पता नहीं क्यूँ मुझे ताने देने लगते

    ताज्जुब होता

    साथ-साथ दुःख भी

    अक्सर चुप रह जाना पड़ता

    मुझे अच्छे मौसम में भी साथियों की ज़रूरत थी

    और उन्हें सिर्फ़ बुरे मौसम के लिए...

    मुझे ताज्जुब था कि

    वे मेरी तरह परेशान क्यूँ नहीं हैं

    किसी को बुरा कहना बहुत अजीब लगता था

    और अच्छा कहता तो

    मुझे ख़ुद भी समझ में नहीं आता था

    कि मैं आख़िर ऐसा क्यों कह रहा हूँ

    मुझे अब भी भरोसा था कि

    ज़रूरत बनी रहेगी :

    वसंत में हरे पत्तों की

    पागल गीतों की

    मदहोश मौसम की

    मैं सपने बुनता रहता

    और लोग—

    लोग मेरी भी ज़रूरत नहीं समझते थे

    लेकिन मैं अब भी भरोसा करता हूँ

    कि ज़रूरत बनी रहेगी :

    वसंत में हरे पत्तों की

    पागल गीतों की

    मदहोश मौसम की

    और मेरी भी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सारुल बागला
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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