दुर्गा टॉकीज़ : दिन और रात

durga taukiz ha din aur raat

असद ज़ैदी

असद ज़ैदी

दुर्गा टॉकीज़ : दिन और रात

असद ज़ैदी

और अधिकअसद ज़ैदी

    अड़तालीस साल से यहाँ की दीवारें

    मर्दों के पेशाब से भीगी हैं

    अँधेरे में काम करने के अभ्यस्त पंखे

    फेंकते हैं सीलन भरी हवा और अँधेरा

    थोड़ा लोगों की तरफ़, बाक़ी किसी की तरफ़ नहीं

    फ़र्श बार-बार उखड़ता है, किसी के पंजे

    किसी के घुटने को पकड़ लेता है : ठोकर खाकर

    पुलिसवाला लुढ़कता है ढोल-सा

    सिने संवाददाता 'दिव्यचक्षु' कराहते हैं

    ग़ुस्से में पन्ना रंग डालते हैं

    और एक कामचलाऊ पैबंद लगा दिया जाता है

    कुछ केबिन यहाँ अलग से बने हैं जहाँ

    अँग्रेज़ बैठा करते थे, बयालीस के बाद कुछ ख़ामोश

    कुछ बदले से,

    दूसरे विश्वयुद्ध के मायावी चुंबक से खिंचे

    फ़ौजी आते थे हो-हो हँसते हुए

    केबिनों में अब टूटा फ़र्नीचर भरा है

    चोरी से दर्शकों पर यहाँ से निगाह रखा करते हैं

    कुछ शोहदे, कभी-कभी हल्के से खखारते हुए

    ठंडे कठोर सीमेंट पर अनगिनत बार

    टपका है वीर्य,

    स्कूली छात्रों का, बेबस अधेड़ों का

    आख़िरी शो में अक्सर गिरा है

    चाक़ूबाज़ शराबियों का कड़वा बलग़म

    और ख़ून कुछ सस्ता-सा कुछ काला कुछ मुफ़्त

    कुर्सियों के बीच आए दिन वही चीकट रूमाल

    वही कंघे

    यह वही पुराना पर्दा है जिस पर

    एक बार दिखाई गई थी 'ख़ामोशी'

    और आपको अचानक नज़र आई थी

    वहीदा रहमान के मुँह से निकलती

    जीवित छिपकली

    इस सिनेमाघर में कुँआरी लड़कियाँ और विवाहित औरतें

    एक ही भाव से तकती हैं अमिताभ जी का चेहरा

    और सुश्री सिल्क स्मिता की मशीनी कमर

    यहाँ कभी-कभी कुछ स्थानीय बुद्धिजीवी भी

    चले आते हैं, आपसी कटुता भूलकर

    और इंटरवल में कर लेते हैं

    आने वाले ख़तरे की भी थोड़ी याद।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सरे−शाम (पृष्ठ 170)
    • रचनाकार : असद ज़ैदी
    • प्रकाशन : आधार प्रकाशन
    • संस्करण : 2014

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