माँ का अंतर्द्वंद्व

man ka antardwandw

महेश चंद्र पुनेठा

महेश चंद्र पुनेठा

माँ का अंतर्द्वंद्व

महेश चंद्र पुनेठा

और अधिकमहेश चंद्र पुनेठा

    माँ मैं नहीं समझ पाया

    तुम्हारे देवता को

    बचपन से सुनता आया हूँ उसके बारे में

    पर उसका मर्म नहीं समझ पाया कभी

    होश सँभाला जबसे

    दौड़ता ही देखा तुम्हें

    किसी किसी गणतुवा या पूछेरे के घर

    काँटा भी चुभा हो किसी के पैर में

    हुआ हो कोई दुःख

    बीमार आदमी हो या जानवर

    तुमने अस्पताल से पहले गणतुवा के घर की राह पकड़ी

    भले ही हर बार राहत मिली हो अस्पताल से ही

    पेट काटकर तुमने

    जाने कितने रातों के जागर लगाए

    कितने बकरों की बलि दी

    पूजा-पाठ-गोदान-यज्ञ तो याद नहीं

    किस-किस मंदिर और कितनी बार करवाए

    रोग-दोष, दुःख-तकलीफ़ कभी नहीं भागे

    बाक़ायदा बढ़ते ही गए

    पिता ने पहले से अधिक शराब पीनी शुरू कर दी

    गबन के आरोप में पिता की नौकरी चली गई

    कंपनी बंद होने से

    बड़ा भाई दिल्ली से घर लौट आया

    दहेज दे पाने की हैसियत

    और मंगली होने के चलते

    बहन को कोई वर नहीं मिल पाया

    उचित पौष्टिक आहार के अभाव में

    और दिन-रात काम में पिसी होने के कारण

    भाभी का गर्भपात हो गया

    बछिया मर जाने के कारण

    गाय खड़बड़ करने लगी दूध देने में

    बकरी को बाघ उठा ले गया

    मकान को छत नहीं मिल पाई बीस वर्षों से

    ज़मीन का टुकड़ा खड़िया माफ़िया ने दबा लिया

    नौले का पानी सूख गया

    तुम्हें इस सबमें भी देव-दोष ही नज़र आया

    जितने गणतुवा-पूछेरों के घर गई

    उतने भूत-प्रेत,

    परी-बयाव

    आह-डाह,

    घात-प्रतिघात,

    रोग-दोष

    देवता बताए

    तुम पूजती रही सभी को

    थापती रही

    ताबीज बनवाए

    झाड़-फूँक करवाई

    मुर्ग़ों की बलि दी

    कई मंदिरों में बैठी औरत

    पर कभी घर में शांति नहीं देखी

    एक अदृश्य-अज्ञात भय मँडराता रहा

    बाहर से अधिक भीतर दबाता रहा

    दरिद्रता से बढ़कर दूसरा दोष है क्या कोई?

    घर में चोरी हुई

    तुम चावल लेकर पूछने गई

    चौबीस घंटे में बरामदगी की बाज़ी दी

    चौबीस साल बीत गए

    हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमे को

    शर्तिया जीतने की बाज़ी थी

    उल्टा हुआ

    जीता-जीता मुक़दमा हार गए

    जिन गणतुओं को

    पता नहीं अपने अतीत का

    वह तुम्हारे अतीत का उत्खनन करते रहे

    तुम्हारे हर कष्ट की जड़

    खंडहरों और ध्वंसावशेषों में लिपटी दिखाते रहे

    बात-बात पर

    तुम से हाँ की मुहर लगवाते रहे

    तुमने इसे दैवीय चमत्कार मान लिया

    और जैसा-जैसा कहा वैसा-वैसा करती गई

    यदि तुम्हारी मन्नत पूरी हुई

    तुमने दसों को बताया

    बढ़ गई गणतुवा की टी.आर.पी.

    जब बाज़ी नहीं लगी

    अपने भीतर ही दफ़्न कर लिया तुमने उसे

    मेरे प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों से तुम

    भीतर तक सिहर उठती

    अपनी क़सम देकर चुप करा देती

    माँ! तुम सोचती हो

    दिल्ली तक अछूती नहीं जिससे

    मैं नहीं मानता उसे

    इसलिए परेशान रहता हूँ अक्सर

    तुम करती रहती हो भक्ति

    दिन के दो-दो वक़्त जलाती हो दीया

    कभी नहीं किया नागा

    फिर भी तुम्हारा देवता तुमसे नाराज़ क्यों हुआ

    क्यों कहता है—कि भूल गई है तू मुझे

    नहीं चढ़ाया एक फूल

    नहीं जलाई एक बाती अरसा गुज़र गया

    तेरा हर तरह से भला किया मैंने

    तू उसी में खो गई

    कभी याद नहीं आई तुझे मेरी।

    माँ! जिसको तुम देने वाला कहती हो

    वह क्यों माँगने लगता है—

    दो रात के जागर और एक जोड़ी बकरे

    माँ! क्या अंतर है—

    तुम्हारे इस देवता और हफ़्ता वसूलने वाले दरोगा में

    मेरी समझ में आज तक नहीं आया

    कैसा अजीब न्याय है उसका

    करे कोई

    भरे कोई

    जाने कितनी बार सुन लिया

    तुम्हारे मुँह से—

    पितर का किया नातर को लगता है

    मैं कभी पचा नहीं पाया इस न्याय-सिद्धांत को

    मेरी सहज बुद्धि कहती है कि

    सज़ा उसी को मिलनी चाहिए

    जिसने अपराध किया हो

    सज़ा भुगतने वाले को पता नहीं

    कि उसे किस अपराध की सज़ा मिली है।

    और यह कैसी सज़ा कि

    सज़ा देने वाले को ख़ुश कर दें

    तो सारी सज़ा माफ़

    माँ! तुम्हारे मुँह से अनेक बार सुन चुका हूँ

    कि जहाँ जाओ कुछ कुछ पुराना निकाल देते हैं

    सब खाने-पीने का धंधा है

    मुझे लगता है तुम्हारा मोहभंग हो गया है

    लेकिन फिर किसी नए गणतुवा का नाम सुनते ही तुम

    क्यों निकल पड़ती हो—

    रूमाल की गाँठ में चावल और भेंट बाँध

    पूछ करने को

    माँ! मैं आज तक

    तुम्हारे इस देवता को समझ पाया

    और तुम्हारी इस अंध आस्था को

    तुम्हें ही कहते पाया

    वह बाहर नहीं भीतर होता है

    फिर तुम क्यों भटकती रहती हो इधर-उधर

    तुम्हारी बाहर की भटकन

    भीतर की जकड़न बन गई

    मुक्त होना चाहती हो पर मुक्त नहीं हो पाती हो

    किसी ने कोशिश भी नहीं की माँ

    तुम्हें बाहर निकालने की

    जितने आए उन्होंने एक नया धड़ा बाँध दिया

    एक त्रिशूल और गाड़ दिया

    धूनी रमा दी

    जलते दिए में तेल डाल दिया

    अगरबत्ती की धुलखंड मचा दी।

    मुझे लगता है माँ तुम

    इस मानसगृह से

    बाहर निकल पाती तो अवश्य सुकून पाती।

    स्रोत :
    • रचनाकार : महेश चंद्र पुनेठा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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