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रवीन्द्रनाथ टैगोर

और अधिकरवीन्द्रनाथ टैगोर

    तुमने इस धरती को प्यार किया था

    तुम्हारी हँसी सुख से भरी हुई थी

    तुमने जान लिया था

    निखिल के स्रोत से मिलकर प्रसन्न होना

    इसीलिए तुम्हारा हृदय

    हृदय और प्राण को मोहित करने वाला था

    यह हरी-भरी धरती तुम्हारी अपनी थी

    जान पड़ता है आज आकाश-भर से देखती हुई तुम्हारी आँखें

    इस उदास मैदान में घूम रही हैं

    तुम्हारी वह मुस्कान टकटकी लगाकर देखने का वह सुख

    सबको छूकर विदा का गीत गाता हुआ चल रहा है

    इस ताल, वन और गाँव का अतिक्रमण करके

    तुम अपना वह स्नेह मेरी आँखों में अंकित कर गई हो

    मेरे नयनों में अपनी दृष्टि रख गई हो

    जो कुछ दोनों ने देखा था

    मैं आज अकेला ही उसे देख रहा हूँ

    तुम मेरे मन में रहकर उसका उपभोग कर रही हो

    अपनी मुग्ध दृष्टि तुमने

    मेरी पुतलियों में अंकित कर रखी है

    वन में जो यह शीत-काल का आलोक सिहर रहा है

    हवा में शिरीष के ये जो पत्ते झर रहे हैं

    इस शीत मध्याह्न के मर्मरित वन में

    धूप और छाया के इस कम्पन में

    तुम्हारे और मेरे प्राण प्रत्येक क्षण पर क्रीड़ा कर रहे हैं

    हे तुम, मेरे जीवन में तुम बची रहो, बची रहो

    मेरे चित्त के द्वारा तुम अपनी इच्छाएँ पूरी करो

    मुझे मन-ही-मन ऐसा लगता

    कि अतिशय गोपन भाव से आज तुम मेरे भीतर

    'मैं' बन गई हो

    तुम मेरे जीवन में बची, बची रहो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रवींद्रनाथ की कविताएँ (पृष्ठ 209)
    • रचनाकार : रवींद्रनाथ टैगोर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1967

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