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एक बैग की चोरी

अभी-अभी, मुझे रात के क़रीब 8:30 बजे एक फ़ोन कॉल आया। दिल्ली की एक यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे मेरे एक घनिष्ठ मित्र ने घबराए हुए स्वर में बताया, “भैया, मेरा बैग चोरी हो गया है! क्लासरूम से ग़ायब!” यह सुनते ही मेरा दिमाग़ एक साल पीछे घूम गया, जब ठीक ऐसी ही घटना मेरे साथ यहाँ अमेरिका में घटी थी। वो यादें फिर ताज़ा हो उठीं। मैंने सोचा, क्यों न इस क़िस्से को क़लमबद्ध किया जाए—ताकि वक़्त के साथ धुँधली पड़ती यादों को सहेजा जा सके।

मैकेंज़ी हॉल : एक शोध छात्र की दुनिया

यह कहानी मैकेंज़ी हॉल नाम की एक विशाल इमारत से शुरू होती है, जिसका नाम मैकेंज़ी नदी से आया है। इस इमारत में इतिहास विभाग के अलावा एक-दो अन्य विभाग भी हैं। इसके पहले फ़्लोर पर बड़े-बड़े आधुनिक क्लासरूम हैं, जिनमें से कुछ 200-250 छात्रों को समायोजित कर सकते हैं, जबकि अन्य में कम से कम 50-60 की क्षमता वाले कमरे हैं। दूसरे फ़्लोर पर प्रोफ़ेसरों के दफ़्तर हैं और उसी मंज़िल के दूसरे हिस्से में ग्रेजुएट छात्रों के लिए छोटे-छोटे कार्यालय या क्यूबिकल हैं, जिन्हें जीई (GE) ऑफ़िस कहते हैं। जी हाँ, यहाँ अमेरिका में पीएचडी छात्रों को अपना अलग ऑफ़िस स्पेस मिलता है। यह मेरे लिए एक नई बात थी। जब मैं भारत के सबसे प्रतिष्ठित आईआईटी (IIT) मद्रास में था, तो वहाँ भी पीएचडी छात्रों को कोई अलग कार्यस्थल नहीं दिया गया था। वहाँ रिसर्च स्कॉलर्स आरएसएल लैब (RSL) नाम की एक साझा लैब ज़रूर हुआ करती थी—एक बड़ा-सा हॉल जिसमें कतारबद्ध टेबल-कुर्सियाँ, एयर कंडीशनर और कुछ कॉमन कंप्यूटर होते थे, लेकिन कोई व्यक्तिगत स्थान नहीं था। सब अपने-अपने लैपटॉप और किताबों के साथ उसी कम्युनिटी हॉल में काम करते थे। भारत के ज़्यादातर कॉलेजों में शोध छात्रों के लिए यही व्यवस्था आम है, जैसे किसी क़स्बे की सार्वजनिक पुस्तकालय—एक कमरे में ठसाठस लोग, अपनी जगह बचाने के लिए जद्दोजहद करते हुए।

इसके विपरीत, यहाँ अमेरिका में मुझे एक छोटा, पर व्यक्तिगत ऑफ़िस मिला, जिसे मैं साहित्यकारों की भाषा में ‘मेरा कमरा’ कह सकता हूँ। इसकी जानकारी यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर भी दर्ज है, ताकि अंडरग्रैजुएट छात्र ज़रूरत पड़ने पर सीधे मुझसे मिल सकें। दरवाज़े पर अपना नाम देखकर मैं तो उसे एक छोटे-मोटे सिंहासन जैसा मानता हूँ!

दरअस्ल, यहाँ पीएचडी छात्रों को ग्रेजुएट एम्प्लॉई (GE) का काम करना होता है (जिसे भारत या अन्य विश्वविद्यालयों में टीचिंग असिस्टेंट या टीए कहते हैं)। हर ग्रेजुएट स्टूडेंट को एक अनुबंध के तहत पढ़ाई के साथ-साथ जीई का काम करना अनिवार्य है। इसके बदले में ट्यूशन फ़ीस माफ़, वज़ीफ़ा और दूसरी सुविधाएँ मिलती हैं। जीई के तौर पर हमारी ज़िम्मेदारी होती है कि हम हर टर्म (यहाँ साल में चार टर्म : फ़ॉल, विंटर, स्प्रिंग, समर) में किसी प्रोफ़ेसर के साथ जुड़े हुए अंडरग्रैजुएट कोर्स में शिक्षण सहायक का काम करें। आमतौर पर प्रोफ़ेसर क्लास में लेक्चर देते हैं और कोर्स डिज़ाइन करते हैं, बाक़ी के लॉजिस्टिक्स की ज़िम्मेदारी जीई की होती है। जीई के दो प्रमुख काम होते हैं—ग्रेडिंग : क्विज़, असाइनमेंट, मिड-टर्म परीक्षा या फ़ाइनल पेपर की जाँच करके अंक देना और छात्रों को फ़ीडबैक देना। डिस्कशन सेशन : यदि क्लास में 100-120 छात्र हैं और 2-3 जीई हैं, तो प्रोफ़ेसर लेक्चर के अलावा हर जीई को 20-30 छात्रों का एक समूह सौंपते हैं। जीई को हफ़्ते में एक बार एक घंटे के लिए इस समूह के साथ डिस्कशन क्लास लेनी होती है। लेक्चर में पढ़ाए गए पाठ को सरल बनाकर छोटी टोली में समझाना और छात्रों की शंकाएँ दूर करना—ये जीई की ज़िम्मेदारी होती है। कई बार परीक्षा की तैयारी या असाइनमेंट में भी मदद करनी होती है। और इन्हीं सब के एवज में जीई को विश्वविद्यालय की तरफ़ से एक कार्यस्थल दिया जाता है, जिसमें एक बड़ी-सी मेज़, आरामदायक कुर्सी, किताबों के लिए रैक, कंप्यूटर मॉनिटर आदि की व्यवस्था होती है, जहाँ आप दुनिया के हालात पर विचार करने के साथ-साथ अपने शोध कार्य पर भी काम कर सकते हैं। इसी कमरे में हफ़्ते में एक-दो बार अपने ‘ऑफ़िस ऑवर्स’ रखने होते हैं (उदाहरण के लिए, मेरे ऑफ़िस ऑवर्स मंगलवार सुबह 11 से 12 बजे होते हैं), जब कोर्स के छात्र आकर मुझसे प्रश्न पूछ सकते हैं।

इसके अलावा, हर विभाग का एक ‘ग्रैड लाउंज’ होता है। यह एक बड़ा-सा कमरा होता है जहाँ थके-हारे ग्रेजुएट छात्र आराम कर सकते हैं। यहाँ आरामदायक सोफ़े, कुछ डेस्कटॉप कंप्यूटर, फ़्रिज, माइक्रोवेव और कॉफ़ी मशीन जैसी सुविधाएँ होती हैं। कोने में एक छोटी लाइब्रेरी भी होती है, जहाँ ऐसी किताबें दान में मिली होती हैं जो ग्रेजुएट स्कूल की जीवनशैली पर सलाह देती हैं—जैसे समय प्रबंधन, शोध कौशल, थीसिस लेखन इत्यादि। सबसे महत्त्वपूर्ण बात—उसी ग्रैड लाउंज में एक बड़ा-सा प्रिंटर रखा होता है, जिससे हर ग्रेजुएट स्टूडेंट अनलिमिटेड पेज प्रिंट कर सकते हैं (चाहे दस पेज हों या तीन सौ पेज की किताब)। इसके ऊपर से विभाग ज़रूरी दफ़्तरी स्टेशनरी भी मुफ़्त देता है! पेन, पेंसिल, मार्कर, पेपर, फ़ोल्डर, क्लिप, यहाँ तक कि यूएसबी ड्राइव और चार्जर केबल तक बिना पैसे के उपलब्ध होते हैं।

ये सब इसलिए होता है ताकि टीए/जीई अपना शिक्षण और शोध का काम बेफ़िक्र होकर कर सकें। भारत में मैंने कभी भी विभाग के स्तर पर ऐसी सुविधाएँ नहीं देखी थीं।

एक ठंडी शाम, अनजान मेहमान और चोरी

अब आता है वह दिन, जिसने इस पूरे क़िस्से को जन्म दिया। सर्दियों की एक शाम मैं अपने ऑफ़िस (कमरा नंबर 350G) में बैठा अगली क्लास के लिए कुछ पेपर प्रिंट करने की तैयारी कर रहा था। मुझे कई जर्नल आर्टिकल प्रिंट करने थे, इसलिए मैं अपने क्यूबिकल से निकलकर ग्रैड लाउंज चला गया, जहाँ प्रिंटर था। दिसंबर की कड़ाके की ठंड थी और बाहर अँधेरा जल्दी घिर चुका था। ग्रैड लाउंज में मैंने कंप्यूटर से प्रिंट कमांड देकर फ़ुर्सत से सोफ़े पर बैठकर एक दोस्त से वीडियो कॉल पर हल्की-फुल्की गपशप भी कर रहा था। भारत और अमेरिका के समय के अंतर के चलते, मैं अपने दोस्तों और यार-प्यारों से तब बात कर पाता हूँ, जब मैं सोने जा रहा होता हूँ या सुबह उठकर, क्योंकि तब वे सोने जा रहे होते हैं या उठकर अपना दिन शुरू कर रहे होते हैं।

ग्रैड लाउंज में मेरी नज़र खिड़की के पार बरामदे से गुज़रते एक व्यक्ति पर पड़ी। एक अधेड़ उम्र का आदमी अजीब-से कपड़ों में, बेतरतीब बड़े बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ धीरे-धीरे चलता दिखाई दिया। देखने में वो बेघर लग रहा था। हमारी यूनिवर्सिटी एक पब्लिक यूनिवर्सिटी है और परिसर की इमारतें आम लोगों के लिए खुली रहती हैं, कम से कम कार्यावधि में। यहाँ अमेरिका में किसी भी सार्वजनिक भवन या विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में कोई भी नागरिक अंदर आ-जा सकता है। सुरक्षा के नाम पर ज़्यादा बंदिशें नहीं होतीं। भारत में, अगर आप किसी रिहायशी कॉलोनी में भी घुसना चाहें तो गेट पर चौकीदार सबसे पहले पूछता है, “कहाँ जा रहे हो, किससे मिलना है?” बिना पहचान बताए अंदर नहीं जाने दिया जाएगा। मेरे अपने कॉलेज आईआईटी में भी हर विभाग या हॉस्टल के गेट पर गार्ड बैठे रहते थे।

तो उस पल मैंने यही सोचा कि शायद वह व्यक्ति आस-पास कहीं गर्माहट की तलाश में गलियारे से होकर जा रहा है। उसकी नज़र मुझसे मिली तो उसने दूर से ही हाथ हिलाकर ‘हेलो’ कहा। मैंने भी शिष्टाचारवश मुस्कुराकर हाथ हिला दिया। अमेरिका में यह आम बात है कि अजनबी भी चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए ‘हाय’, ‘हेलो’ कह देते हैं। यह उनकी रोज़मर्रा की सौजन्यता का हिस्सा है। मैंने भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और दुबारा अपने वीडियो कॉल पर व्यस्त हो गया। कुछ मिनट बाद मैंने फिर खिड़की से झाँका तो देखा वही आदमी उसी रास्ते से वापस जा रहा था जिस ओर पहले गया था। जाते-जाते फिर से उसने मेरी ओर देखकर हाथ हिलाया, और मैं फिर मुस्कुरा दिया।

मैंने अपने दोस्त को बताया कि कोई बेचारा ठंड में इधर घूम रहा है। मुझे नहीं पता था कि अगले ही पल मेरे साथ क्या होने वाला था। उसी वक़्त मेरा एक दोस्त जैकब तेज़ क़दमों से लाउंज की तरफ़ आता दिखा। वह थोड़ा घबराया हुआ लगा। आते ही उसने पूछा, “तुमने अभी-अभी यहाँ से कोई आदमी गुज़रते देखा?” मैंने कहा, “हाँ, एक बेघर जैसा लगने वाला आदमी अभी-अभी गया है उधर से।” जैकब बोला, “मैंने भी उसे यहीं दूसरे फ़्लोर पर घूमते देखा और मुझे शक हुआ, इसलिए तुम्हें सावधान करने आ रहा हूँ। अपने ऑफ़िस का दरवाज़ा बंद रखना।” दरअस्ल, इस शहर में बेघर लोगों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है और यह यहाँ का एक गंभीर सामाजिक और प्रशासनिक मुद्दा है। कई बेघर लोग नशे की लत या मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनकी नौकरी-घर छूट गया है और अब वे सड़कों या किसी अन्य आश्रय स्थलों में रात गुज़ारते हैं। स्थानीय सरकारें इनके लिए शेल्टर होम, फ़ूड कूपन और मुफ़्त भोजनालय जैसी योजनाएँ चलाती हैं, लेकिन फिर भी बड़ी तादाद में लोग खुले में रहने को मजबूर हैं। ऐसे में कैंपस के आस-पास बेघर लोग दिख जाएँ तो हैरानी नहीं होती। हाँ, ज़रूरी यह है कि वे कहीं कोई गड़बड़ न करें। जैकब इसी बारे में चिंता जताने आया था। मैंने उसका शुक्रिया अदा किया, पर मुझे तब भी अंदाज़ा नहीं था कि अनर्थ हो चुका था।

जब मेरे सारे पेपर प्रिंट हो गए, मैं उन्हें लेने के लिए वापस लौटा। कमरे में पहुँचते ही मुझे झटका लगा—मेरी कुर्सी के पास रखा मेरा बैग ग़ायब था! पलक झपकते ही मुझे एहसास हुआ कि वही अजनबी आदमी (जिसे मैं दो बार हाथ हिलाकर अभिवादन कर चुका था) मेरे कमरे से मेरा बैग उठाकर ले जा चुका है। और मैं मूर्ख बनकर उसे हेलो करता रहा! उस क्षण मेरे चेहरे के भाव देखने लायक रहे होंगे—अविश्वास, ग़ुस्सा, घबराहट सब एक साथ आ गए। जल्दी से मैं इधर-उधर भागा, सोचा शायद नज़रों से चूक गया हो, पर बैग सच में ग़ायब था।

बैग में क्या था? हमेशा की तरह, मैंने अपना वॉलेट और एक स्मार्टफ़ोन बैग की सबसे ऊपर वाली जेब में रखा हुआ था। संयोग से, उस शाम मेरे पास दो मोबाइल फ़ोन थे—एक भारत से लाया पुराना फ़ोन जिसमें भारतीय सिम थी, और दूसरा यहाँ अमेरिका आकर लिया नया स्मार्टफोन। अभी मैं जिस फ़ोन पर वीडियो कॉल कर रहा था, वह पुराना वाला था; नया स्मार्टफोन मेरे बैग में था, वॉलेट के साथ उसी जेब में। वॉलेट में मेरे बैंक कार्ड, यूनिवर्सिटी स्टूडेंट आईडी, ड्राइविंग लाइसेंस, कुछ नकद डॉलर और भारत के कुछ पहचान पत्र भी रखे थे। इसके अलावा, बैग में लाइब्रेरी से ली हुई एक किताब और कुछ काग़ज़ात थे। ग़नीमत यह थी कि मेरा लैपटॉप मेज़ पर ही रखा था, जिसे उस चोर ने हाथ नहीं लगाया!

ख़ैर, मुझे साक्षात् मूर्तिवत् खड़े देख कुछ ही सेकंड में जैकब भी भागता हुआ मेरे पीछे आ पहुँचा। मैंने हकलाते हुए उसे कहा, “समबडी स्टोल माई बैग!” (किसी ने मेरा बैग चुरा लिया!)। जैकब फ़ौरन समझ गया कि मामला उसी व्यक्ति का है जिसके बारे में हम बात कर रहे थे। वह तुरंत सक्रिय हुआ और बोला—“चलो, अभी बिल्डिंग में देखते हैं।”

अब शुरू हुई भाग-दौड़। मैं, जैकब और उसी फ़्लोर पर खड़ा एक भारतीय दोस्त (जो शोर सुनकर पास आ गया था)—हम तीनों ने मिलकर तीन दिशाओं में तलाशी शुरू कर दी। सीढ़ियाँ उतरकर ग्राउंड फ़्लोर तक देखा, वापस ऊपर दूसरे और तीसरे फ़्लोर छान मारे, हर कॉरिडोर के चक्कर लगाए, ख़ाली क्लासरूम झाँक कर देखे, यहाँ तक कि बिल्डिंग की छत तक जाकर देख लिया—चोर और मेरे बैग का कहीं पता नहीं था। मानो वह हवा में ग़ायब हो गया। बिल्डिंग लगभग ख़ाली हो चुकी थी; शाम के बाद ज़्यादा लोग रुकते भी नहीं, तो कोई देखने वाला भी नहीं था।

मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक चुकी थी। जिस बैग को मैं रोज़ पीठ पर टाँगे घूमता था, उसमें मेरा रोज़मर्रा का सामान था—सब कुछ चला गया था। ऊपर से जल्दी अँधेरा हो जाने के कारण दिल और घबरा रहा था। कुछ समझ नहीं आया तो जैकब ने सलाह दी कि तुरंत कैंपस पुलिस को सूचना दो। हर यूनिवर्सिटी की तरह, इस यूनिवर्सिटी की भी अपनी पुलिस है जो कैंपस में सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सँभालती है। हमने फ़ौरन वहीं से फ़ोन घुमा दिया।

कैंपस पुलिस

क़रीब दस मिनट में एक पुलिस अधिकारी मौक़े पर पहुँचीं। वह बिना किसी तामझाम के ऐसे आईं, मानो किसी दोस्त से मिलने आई हों। उनका व्यवहार अत्यंत शांत और सहयोगपूर्ण था। सबसे पहले उन्होंने हमसे पूरा घटनाक्रम विस्तार से सुना। फिर उन्होंने मुझसे कुछ सवाल किए—घटना किस वक़्त हुई, आख़िरी बार मैंने बैग कब और कहाँ देखा था, बैग का रंग-आकार कैसा था, अंदर क्या-क्या सामान था, संदिग्ध व्यक्ति किस दिशा में जाता दिखा, आदि।

थोड़ी ही देर में उन्होंने मुझे एक फ़ॉर्म दिया और आग्रह किया कि मैं उसमें—बैग और उसमें रखी अहम चीज़ों का विवरण भर दूँ। मैं धीमे-धीमे काँपते हाथों से फ़ॉर्म भरने लगा—काले रंग का बैकपैक, जिसमें एक वनप्लस स्मार्टफोन, एक वॉलेट (जिसमें ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड, स्टूडेंट आईडी, डेबिट-क्रेडिट कार्ड्स, करीब $300 नकद) और एक लाइब्रेरी पुस्तक थी। यह लिखते हुए मन में बार-बार आ रहा था कि अभी सुबह ही किराया भरने के लिए बैंक से पैसे निकाले थे और वो भी चले गए।

पूरी रिपोर्ट लेने के बाद ऑफ़िसर ने बेहद शालीनता से कहा, “हम पूरी कोशिश करेंगे आपकी मदद करने की। आप चिंता न करें। मामला दर्ज हो चुका है। अगर हमें कोई अपडेट मिलेगा तो आपको आपके यूनिवर्सिटी ईमेल पर सूचित करेंगे।” उन्होंने मुझे एक केस नंबर भी दिया और कहा कि किसी भी सहायता के लिए इस नंबर का हवाला देते हुए संपर्क कर सकते हैं।

मैं उस वक़्त भले सदमे में था, लेकिन मन ने यह नोट किया कि अमेरिका में यह मेरा पुलिस से पहला वास्ता था और अनुभव कितना अलग था! पुलिस वाले होते हुए भी उन्होंने यह नहीं कहा कि “तुम्हारी ही ग़लती है जो चोरी हुई होगी।” पुलिस का व्यवहार ऐसा था जैसे यह उनकी रोज़मर्रा की ड्यूटी हो और वे इसे पूरी गंभीरता से निभाएँगी। मेरा भारत में पुलिस से कई बार पाला पड़ा है और वहाँ अक्सर थाने जाने पर पहले आपको ही घुड़की मिलती है—“बैग सँभालकर क्यों नहीं रखा? इतना कीमती सामान रखोगे तो चोरी होगा ही!” मानो शिकायत करने नहीं, ग़लती स्वीकारने गए हों। हरियाणा में इसी साल फ़रवरी में घटी एक घटना इसका बढ़िया उदाहरण है, जहाँ एक युवती का फ़ोन चोरी हुआ तो शिकायत करने पर पुलिस ने उलटे उससे सवाल-जवाब शुरू कर दिए—“फ़ोन कैसे खो गया? ख़ुद क्यों नहीं सँभाला? हमारे पास क्यों आ गए?” इस वाक़ये को पीड़िता ने सोशल मीडिया पर उजागर करते हुए तंज़ किया कि “प्यारी हरियाणा पुलिस, तुमसे ज़्यादा सहयोगी तो चोर निकला!” हुआ यूँ कि पुलिस के टालने के बाद उस युवती को चोर ने ख़ुद संपर्क किया और कुछ पैसे लेकर फ़ोन लौटा दिया—यानी फ़ोन वापसी में पुलिस से ज़्यादा बेहतर तालमेल चोर के साथ हुआ। इसीलिए तो लोग हल्की चोरी-चकारी के मामलों में भारत में थाने जाने से कतराते हैं।

बहरहाल, यहाँ मेरे साथ बिल्कुल उलटा हो रहा था। पुलिस अधिकारी मुझे दिलासा दे रही थी, दोष मेरा नहीं था और पूरी प्रक्रिया एकदम पेशेवर थी। रिपोर्ट दर्ज होते ही वह अधिकारी घटनास्थल (मेरे ऑफ़िस) के आस-पास मुआयना करने लगीं। उन्होंने आस-पास के कमरों में झाँका, बरामदे की जाँच की, यहाँ तक कि सीढ़ियों और आपातकालीन निकास तक जाकर देखा कि कहीं बैग फेंका तो नहीं गया। फिर उन्होंने कहा कि वे बिल्डिंग के मुख्य प्रवेश द्वार और निकास पर लगे सीसीटीवी कैमरे भी जाँच करवाएँगी (यहाँ आमतौर पर इमारतों के अंदर नहीं, सिर्फ़ एंट्रेंस पर सीसीटीवी होते हैं)। मैंने जितना बन पड़ा सहयोग किया और उन्होंने आश्वस्त किया कि आगे कोई भी ख़बर मिलते ही मुझे बताएँगी।

पुलिस के जाते ही मैंने अपने स्तर पर नुक़सान कम करने की तरफ़ क़दम बढ़ाए। पहले तो दूसरे फ़ोन से तुरंत अपने बैंक के डेबिट-क्रेडिट कार्ड्स ब्लॉक करवाए, जिससे कोई उनका ग़लत इस्तेमाल न कर सके। भारत फ़ोन करके वहाँ के कार्ड्स भी ब्लॉक कराए। उसके बाद अगले ही दिन यूनिवर्सिटी जाकर नई स्टूडेंट आईडी के लिए आवेदन किया, क्योंकि पुरानी आईडी बैग के साथ चली गई थी (और यह आईडी कैंपस में हर जगह काम आती है—लाइब्रेरी, बिल्डिंग एंट्री, बस वगैरह)। नया आईडी बनवाने के लिए $25 फ़ीस भरनी पड़ी, दिल में खटक रहा था कि बेवजह यह ख़र्चा आया। दो-तीन दिन में नई आईडी मिल गई और बैंक कार्ड भी हफ़्ते-दो हफ़्ते में मेल से आ गए। लेकिन मेरा भारतीय ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड, पुस्तक वगैरह की वापसी की उम्मीद कम थी।

इस बीच मैंने अपने विभागाध्यक्ष को ईमेल से घटना की सूचना दी। उन्होंने तुरंत संज्ञान लेते हुए कैंपस सिक्योरिटी और बिल्डिंग मैनेजर को अलर्ट किया। पूरा विभाग हरकत में आया और अगली सुबह बिल्डिंग के कोने-कोने की तलाशी फिर से ली गई—सोचा शायद चोर बैग कहीं कोने में फेंक गया हो। पर नतीजा सिफ़र रहा। हाँ, विभाग ने सहानुभूति के तौर पर मुझे $50 का एक गिफ़्ट कार्ड दिया, बोले “नया बैग वगैरह ले लेना।” इस छोटी-सी मदद ने सच में दिल को छू लिया—यह एक तरह का नैतिक समर्थन था कि हम तुम्हारे साथ हैं।

ख़ैर, घटना के दो दिन बाद मुझे यूनिवर्सिटी पुलिस की तरफ़ से ईमेल आया। उन्होंने लिखा कि प्रारंभिक जाँच में एक बेघर संदिग्ध की पहचान हुई है (शायद कैमरे में या वैसे ही किसी रिकॉर्ड से), लेकिन दुर्भाग्यवश मेरा बैग या सामान बरामद नहीं हो सका है। केस फ़िलहाल खुला है और अपडेट मिलने पर मुझे सूचित करेंगे। मेरे मन में एक उम्मीद थी कि शायद पुलिस उस तक पहुँचेगी और कुछ सामान वापस मिलेगा, पर फ़िलहाल ऐसा कुछ नहीं हुआ था।

फिर, तीसरे दिन उसी पुलिस अधिकारी का मुझे निजी फ़ोन कॉल आया। उन्होंने बड़े विनम्र लहजे में हाल-चाल पूछा: “आप कैसे हैं? आपको किसी और मदद की ज़रूरत तो नहीं? आपके कार्ड्स का दुरुपयोग तो नहीं हुआ? नए आईडी बन गए?” मैंने उन्हें बताया कि कार्ड वगैरह ब्लॉक हो गए और नए आ भी गए हैं, किसी धोखाधड़ी का पता नहीं चला है, नई स्टूडेंट आईडी भी मिल गई है। उन्होंने तसल्ली जताई और कहा, “ठीक है, हम अभी भी छानबीन कर रहे हैं। अगर कुछ मिलता है तो आपको ज़रूर बताएँगे। अपना ख़याल रखें।” इस फ़ोन को रखने के बाद मेरे मुँह से बरबस निकला—वाह! पुलिस अधिकारी ख़ुद पहल करके मुझे फ़ॉलो-अप कॉल कर रही है। भारत में तो अक्सर एफआईआर दर्ज होने के बाद शिकायतकर्ता को ही थाने के दस चक्कर लगाने पड़ते हैं आगे की सूचना के लिए। यहाँ उलटा हो रहा था।

क़रीब एक हफ़्ते बाद मुझे पुलिस विभाग की ओर से एक ईमेल मिला, जिसमें मेरे केस की क्लोजर रिपोर्ट संलग्न थी। लिखा था कि मामले की जाँच पूरी हो गई है। संदिग्ध व्यक्ति की पहचान तो हो गई (संभवत: कोई पुराना रिकॉर्ड वाला बेघर आदमी), संबंधित एजेंसियों को सूचना भी दे दी गई, लेकिन मेरे सामान के बरामद होने की आशंका कम है। रिपोर्ट बड़े औपचारिक ढंग से यह निष्कर्ष देकर बंद हुई कि “हमें खेद है कि हम आपका बैग बरामद नहीं कर सके। फिर भी, भविष्य में यदि कोई जानकारी मिलती है तो आपको सूचित किया जाएगा।” मैंने लंबी साँस लेकर ईमेल बंद की और ख़ुद को दिलासा दिया—चलो, जो हुआ सो हुआ, आगे से और सतर्क रहना होगा।

कुछ दिनों बाद एक दोस्त ने मज़ाक़ में कहा, “कोई बेघर था तो उसने बैग से पैसे निकाल लिए होंगे, फ़ोन बेच दिया होगा और बाक़ी सामान कहीं कूड़ेदान में फेंक दिया होगा।” मैंने भी हँसी में हामी भर दी लेकिन दिल के किसी कोने में यह सोचकर दुख हुआ कि मेरे भारतीय आईडी और यादगार चीज़ें शायद हमेशा के लिए गुम हो गईं।

‘चोर’ कौन?

इस घटना को कुछ हफ़्ते बीत गए। मैं भी अपनी दिनचर्या में लौट आया, लेकिन मन में बेघर लोगों के प्रति एक कड़वाहट घर करने लगी थी। लगता था जैसे हर गली में दिखने वाला बेघर शख़्स चोर ही होगा। इसी दौरान मेरी बात मेरे एक विद्वान मित्र रमाशंकर सिंह से हुई, जो घुमंतू और विमुक्त जनजातियों पर अपने शोध के लिए जाने जाते हैं। मैंने जब उन्हें पूरे प्रकरण के बारे में बताया तो उन्होंने बड़े धैर्य से सुना। मेरी निराशा भाँपकर वे बोले : “देखो, ऐसी चोरी कोई बड़ी चोरी नहीं, मजबूरी की चोरी होती है।” उनके ये शब्द मुझे चुभे। आगे उन्होंने समझाया : “किसी का पर्स उठा लेना, सड़क पर झपट्टा मारकर बैग खींच लेना—ये सब पिट्टी क्राइम्स (छोटे अपराध) की श्रेणी में आते हैं और भारत के लिए ये आम हैं। इनके पीछे अक्सर ग़रीबी, हताशा, अवसरों की कमी और सामाजिक उपेक्षा काम करती है। जिसको दो वक़्त की रोटी का ठिकाना नहीं, वह नैतिक-अनैतिक के लंबे भाषण नहीं झेल सकता—उसके लिए कभी चोरी भी ज़िंदा रहने की जुगाड़ बन जाती है। असल सवाल यह नहीं कि चोर कौन है; सवाल यह है कि चोरी पैदा कौन करता है?”

रमाशंकर सिंह की ये बातें सुनकर मेरा नज़रिया थोड़ा बदल गया। वह बिल्कुल सही कह रहे थे—समाज की असली लूट तो कहीं और चल रही है, बड़े पैमाने पर और सफ़ेदपोश लोगों द्वारा। उन्होंने तीखे शब्दों में कहा था : “असल चोर वो बड़े लोग हैं जो सूट-बूट में कॉर्पोरेट दफ़्तरों में और सियासत के गलियारों में बैठे हैं। वे देश की नीतियाँ ख़रीदते हैं, सरकारें बनाते-बिगाड़ते हैं और हज़ारों करोड़ रुपयों की हेराफेरी करते हैं। उनके कारनामे क़ानून की भाषा में ‘स्कैम’, ‘फ़्रॉड’, ‘घोटाला’ कहलाते हैं, और अक्सर सख़्त सज़ा से बच निकलते हैं। संसद से लेकर मंत्रालय तक उनके आगे नतमस्तक दिखते हैं। लेकिन समाज की नज़र में चोर कौन कहलाता है? वो ग़रीब आदमी जो भूख से मजबूर होकर किसी का बैग उठा लेता है।”

मैं उनकी बातों पर चुपचाप सिर हिलाता रहा। वाक़ई, यह बड़ा विडंबनापूर्ण सच है। अगर भारत की बात करें तो यहाँ आय और अवसरों की असमानता इतनी ज़्यादा है कि कई लोगों के लिए नैतिकता का पाठ पेट भरने के संघर्ष के आगे बेमानी हो जाता है। जिसके बच्चे भूख से बिलख रहे हों, वह रोटी के लिए चोरी करेगा या जेब काटेगा तो उसे हम तुरंत ‘चोर’ की संज्ञा दे देते हैं। दूसरी तरफ़, बड़े-बड़े अरबपति बिज़नेसमैन और नेता करोड़ों-अरबों रुपये के घोटाले कर के भी सम्मानित घूमते रहते हैं, उनके नाम के आगे ‘भगोड़ा’ लगते-लगते सालों निकल जाते हैं। ऐसे कितने ही तो उदाहरण हैं जहाँ करोड़ों की चोरी के कारनामों को क़ानूनी किताबों में फ़ाइनेंशियल फ़्रॉड कहा जाता है, और सालों-साल मुक़दमे चलते हैं। कुछ दोषियों को सज़ा मिलती भी है, लेकिन जितनी धनराशि डूबी उसका शायद दसवाँ हिस्सा भी वापस नहीं आता। इन घटनाओं पर अख़बार में बस सुर्खियाँ बनती हैं, लोग कुछ दिन चर्चा करते हैं, फिर ज़िंदगी आगे बढ़ जाती है। और उधर सड़क किनारे रहने वाला, जिसे मजबूरी में किसी का फ़ोन चुराना पड़ा, वो पुलिस की लाठी और जनता की गालियाँ दोनों खाता है।

इसका यह मतलब नहीं कि मैं चोरी को सही ठहराऊँ। चोरी चाहे छोटी हो या बड़ी, है तो ग़लत ही। पर जिस संदर्भ में रमाशंकर सिंह बात कर रहे थे, वह सामाजिक व्यवस्थाओं पर एक टिप्पणी थी! भारत में जहाँ अभी भी लाखों लोग बेघर हैं—फ़ुटपाथों, रेलवे प्लेटफ़ॉर्मों, पुलों के नीचे उनकी रात कटने को मजबूर है। इतनी बड़ी आबादी के सामने दो वक़्त की रोटी और छत की जद्दोजहद ही सबसे बड़ा प्रश्न है; नैतिकता-दुराचार जैसे प्रश्न तो पेट भरे समाज का ऐश हैं। तो ऐसे में, चोरी को पैदा करने वाली परिस्थितियों का बदलना भी उतना ही या ज़्यादा ज़रूरी है जितना कि चोर को पकड़ना या पीड़ित के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना।

अंत में, उस दिन की घटना को आज एक साल बीत गया है। मेरे मित्र का बैग दिल्ली में चोरी हुआ या नहीं, पता नहीं! मैंने उसे पुलिस के चक्कर काटने के बजाय क्रोध ठंडा होने पर नया बैग ले लेने की सलाह दी है।

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Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें

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