अँगूठा मेहनत कर रहा है, दिमाग़ आराम!
ज्योति दुबे
14 नवम्बर 2025
सड़क के किनारे फ़ुटपाथ पर लेटा बूढ़ा व्यक्ति लगातार खाँस रहा है। बग़ल में बैठा जवान बेटा हथेली पर खैनी ठोंकते हुए खाना बनने का इंतज़ार कर रहा है। चेस-नुमा शरीर के साथ अधनंगा एक छोटा बच्चा खेल रहा है। बाल्टी में सड़क पर पड़ी बोतल में पानी भर अपने मुँह से बार-बार लगाकर पानी के नहीं, बोतल के स्वाद को महसूस करने की कोशिश कर रहा है। एक बच्ची सड़क किनारे गुलाब के कुछ फूल, एक प्रेमी जोड़े को बेचने की जद्दोजहद में लगी है। एक औरत है जो चूल्हे के धुएँ और हवा के धुएँ से आँख को बचाते हुए, चूल्हे में साफ़ ऑक्सीजन झोंक रही है। चूल्हा उसकी साफ़ साँस से जल उठता है। रोटी सिक रही है।
दूसरी तरफ़, दिल्ली के दूसरे कोने में लगभग दो दर्जन लोगों के घरों में रात की रोटी अब नहीं सिकेगी। जलते हुए तवे को ठंडा करते हुए एक स्त्री अपने पानी वाले हाथ तवे पर यूँ छिटक रही है, जैसे अपने पति के जले शरीर को ठंडा करने की कोशिश कर रही हो।
कुछ पिता आँखों में आँसू लिए अब ये सोच रहे होंगे कि उन्हें घर की रोटी वापस कमानी पड़ेगी। कुछ जवान होते बच्चे, जो गिटार सीखने और प्रेमिकाओं से मिलने के ख़्वाब देख रहे थे, उनके सिर से बाप का साया जा चुका है। कुछ लड़कियाँ हैं जो माँ-बाप से अपनी कुछ ख़्वाहिशों का इज़हार करना चाहती थीं, अब हिचकी दबाकर रो रही हैं।
सोशल मीडिया पर सब अपनी-अपनी तरह से इस भयावह मंजर की व्याख्या करने में लगे हैं। एक बीमार व्यक्ति है जो बिस्तर पर बैठे ख़बरों को सरका रहा है और फ़ोन पर घटना के बारे में माँ को बता रहा है। एक अधेड़ औरत पिछले दस दिन से आईसीयू के बिस्तर पर लेटी मौत और जीवन के बीच लटकी है। बेटा अपनी प्रेमिका को माँ की हालत बताकर बिलख-बिलख कर रो रहा है। एक ही रात के ये अलग-अलग रूप, जो सभी अपने-अपने तरीक़े से झेल रहे हैं।
कुछ लोग अपने अधिकार के लिए प्रोटेस्ट कर रहे हैं, उससे भी ज़्यादा लोग इस मंज़र को मोबाइल में क़ैद कर सेल्फ़ी पोस्ट कर रहे हैं। शहर में ज़हर होती हवा लोगों की उम्र को खा रही है। सब कुछ बंद और ठप्प-सा लग रहा है, लेकिन है नहीं! सभी लोग दुख में हैं, पर क्या असल में दुख को समझ पा रहे हैं?
सभी तरफ़ मोटिवेशनल और पॉजिटिविटी की बात हो रही है। क्या असल में कोई भी दुखी होना क़ुबूल कर सकता है? कुछ भी ठीक नहीं है, पर सब जीत जाने के मोटिवेशन से भरे हुए हैं।
डॉक्टर सभी जगह राजधानी में हवा से होने वाले ख़तरों की बात कर रहे हैं और पत्रकार दिल्ली की ख़राब हवा और ख़तरनाक एक्यूआई लेवल (AQI) से शिफ़्ट होकर बिहार इलेक्शन और गाँव की दुनिया को दिखा रहे हैं। जिस देश में सड़क हादसे में हज़ारों लोग मरते हैं। उस देश की हवा में कैंसर घुला हुआ है। उस देश में सरकार को शर्म खाने की दुहाई नहीं दी जाती। उनसे सवाल नहीं किए जाते, बल्कि लोग सत्ता के प्रिय बनने के लिए मिलियन फ़ॉलोवर होने के बावजूद झूठ परोसकर मौक़े और घटना का फ़ायदा जुटाने में लगे हैं। और ख़ुशी-ख़ुशी ग़रीबों को पैसे देकर उनका सारा सामान ख़रीदकर उपकारी बने फिर रहे हैं। देश के विकास और धर्म की रक्षा की बात कर रहे हैं।
इस सबके बीच मेरा सवाल बस इतना है कि क्या असल में हम विकास की राह पर हैं! क्या हम मानसिक तौर पर विकसित हो रहे हैं! या फिर हम सोशल मीडिया की रील के एक दर्शक की तरह ही, समाज की इन घटनाओं को भी रील समझकर स्क्रीन सरकाते जा रहे हैं!
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ज्योति दुबे को और पढ़िए : ज़िंदगी से ग़ायब आमों की महक
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