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जन्मतिथि विशेष : मुक्तिबोध : आत्मा के मित्र को स्नेहांजलि

यह सभा एक बंधु के निधन पर एक कवि के अपने रचना-क्षेत्र हो उठ जाने पर, दुःख प्रकट करने और शोक-संतप्त परिवार को हम सबकी संवेदना पहुँचाने के लिए एकत्र हुई है। बंधु की स्मृति से अभिभूत हो जाना स्वाभाविक है, कवि के कृतित्व के मूल्यांकन का यह अवसर नहीं है। गजानन माधव मुक्तिबोध की स्मृति में दो फूल चढ़ाते हुए और उनके परिवार के दु:ख में साथ बँटाते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि मेरी समझ में यह मुक्तिबोध के काव्य-कृतित्व की विशेष शक्ति थी कि हम उसे पढ़ते हुए भी ‘बंधु’ को कवि से अलग नहीं कर सकते : उनके काव्य में हम कवित्व का उत्कर्ष ठीक उसी स्थल पर पाते हैं, जहाँ हम उसमें बंधुत्व के भाव का तीव्रतर स्पंदन अनुभव करते हैं।

मुक्तिबोध की पहली कविता मैंने पचीस-एक वर्ष पहले पढ़ी थी। यह अकस्मात् नहीं कि उन पहले पहल पढ़ी हुई कविताओं में जो मेरे मन में बैठ गई उसका शीर्षक था ‘आत्मा के मित्र मेरे’। उनकी अंतिम कविता जो मैंने पढ़ी वह सन् 1963 की लिखी हुई थी और मुझे उन्होंने इस वर्ष के आरंभ में भेजी थी। इसका शीर्षक का ‘एक आत्म-वक्तव्य’ इस लंबे अंतराल में हमारा मिलना कभी-कभार ही होता रहा; पत्र-व्यवहार भी बहुत कम हुआ; पर जब हुआ तब कहीं कुछ टूट नहीं दीखी और जब फिर शुरू हुआ तो यह नहीं लगा कि कोई दूरी थी जिसे पाटना आवश्यक है। निजी संपर्क में बंधुत्व की यह सहजता ही मुझे मुक्तिबोध का सबसे उल्लेखनीय गुण जान पड़ता रहा—और मेरे लिए तो विशेष मूल्यवान् गुण; क्योंकि मुझसे तो यह अपवादस्वरूप ही सधता है, जबकि वह हर किसी को वह सहजता दे सकते थे।

यह सहजता उनके काव्य पर भी छाई रही थी। उसमें अनगढ़पन भी था, एक रूखापन भी; पर यह सहज भाव इस रूखेपन को भी उनके काव्य की शक्ति बना देता था।

हर कवि अन्वेषी होता है; कुछ वस्तु का अन्वेषण करते हैं, कुछ समाज का, कुछ के और कई अन्वेष्य हो सकते हैं। मुक्तिबोध (मेरी समझ में, और कई समीक्षकों की राय के बावजूद) आत्मान्वेषण के कवि थे। मैं तो इस बात को उनके काव्य और उनके कविता-संबंधी वक्तव्यों से प्रमाणित मानता हूँ। पर अभी इसका उल्लेख विवाद उठाने के लिए नहीं, उनके काव्य के सबसे बड़े गुण की ओर संकेत करने के लिए कर रहा हूँ। मुक्तिबोध आत्मान्वेषण के कवि थे, पर यह आत्मान्वेषण अपनी किसी विशिष्टता की खोज नहीं था। यह अपने उस रूप की खोज था जो कवि को पूरे समाज से, मानव-मात्र से मिला दे। कोई सोच सकता है कि कवि को आत्मान्वेषी कहना उसकी अवमानना करना है। पर मैं इसे कठिनतर यात्रा समझता हूँ और कवि मुक्तिबोध का विशेष सम्मान इसलिए करता हूँ कि वह आजीवन इस कृच्छ्र साधना में लगे रहे। अपने भीतर पैठना, पर पैठ कर उसे बाहर लाना जो अपना नहीं, सबका है। यह किसी के लिए भी कठिन कार्य है। यह मुक्तिबोध की परिस्थिति में और भी कठिन था, पर वह निष्ठापूर्वक उसमें लगे रहे। ‘आत्म-वक्तव्य’ में उन्होंने लिखा भी था—

कुचले गए इरादों के बाक़ी बचे धड़ 
अधा कटे पैरों ही से लात मारकर 
अपने जैसे दूसरों के लिए 
सब करते हैं दरवाज़े बंद...
अँधियाली गलियों में घूमता है 
तड़के ही, रोज़ 
कोई मौत का पठान 
माँगता है ज़िंदगी जीने का ब्याज 
अनजाना क़र्ज़
माँगता है, चुकारे में, प्राणों का मांस

इन पंक्तियों की व्यथा से उनके संघर्ष का कुछ अनुमान हो सकता है। मेरी धारणा है कि उनका अन्वेषण सफल भी हुआ। वह अपने इस रूप को पहचान भी सके और दूसरों तक पहुँचा भी सके। इसका संतोष और विश्वास उनकी इधर की कविताओं की लंबाई और बिखराव के बावजूद उनमें झलकता है। वह हमारे बीच से असमय चल गए। पर यह सोचकर मुझे कुछ सांत्वना मिलती है कि वह कम से कम वहाँ तक पहुँच गए थे जहाँ कवि पूर्ण होता है। उस पूर्ण कवि का कृतित्व हम नहीं पाते रह सके, यह हमारा दुर्भाग्य है। पर उसकी उपलब्धि का स्पर्श हमें मिला है और मिलता रहेगा।

आत्मवत् हो जाए 
ऐसी जिस मनस्वी की मनीषा 
वह हमारा मित्र है 
माता-पिता-पत्नी-सुहृद पीछे रहे हैं छूट 
उन सबके अकेले अग्र में जो चल रहा है 
ज्वलत् तारक-सा 
वही तो आत्मा का मित्र है।

उस आत्मा के मित्र को, उस मित्र की आत्मा को मैं अपनी स्नेहांजलि अर्पित करता हूँ।

•••

मुक्तिबोध को यहाँ पढ़ सकते हैं : मुक्तिबोध का रचना-संसार 
अज्ञेय को यहाँ पढ़ सकते हैं : अज्ञेय का रचना-संसार

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