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बिहारी

1595 - 1664 | ग्वालियर, मध्य प्रदेश

रीतिसिद्ध कवि। ‘सतसई’ से चर्चित। कल्पना की मधुरता, अलंकार योजना और सुंदर भाव-व्यंजना के लिए स्मरणीय।

रीतिसिद्ध कवि। ‘सतसई’ से चर्चित। कल्पना की मधुरता, अलंकार योजना और सुंदर भाव-व्यंजना के लिए स्मरणीय।

बिहारी की संपूर्ण रचनाएँ

दोहा 203

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥

सखी कह रही है कि नायक अपनी आँखों के इशारे से कुछ कहता है अर्थात् रति की प्रार्थना करता है, किंतु नायिका उसके रति विषयक निवेदन को अस्वीकार कर देती है। वस्तुतः उसका अस्वीकार स्वीकार का ही वाचक है तभी तो नायक नायिका के निषेध पर भी रीझ जाता है। जब नायिका देखती है कि नायक इतना कामासक्त या प्रेमासक्त है कि उसके निषेध पर भी रीझ रहा है तो उसे खीझ उत्पन्न होती है। ध्यान रहे, नायिका की यह खीझ भी बनावटी है। यदि ऐसी होती तो पुनः दोनों के नेत्र परस्पर कैसे मिलते? दोनों के नेत्रों का मिलना परस्पर रति भाव को बढ़ाता है। फलतः दोनों ही प्रसन्नता से खिल उठते हैं, किंतु लज्जित भी होते हैं। उनके लज्जित होने का कारण यही है कि वे यह सब अर्थात् प्रेम-विषयक विविध चेष्टाएँ भरे भवन में अनेक सामाजिकों की भीड़ में करते हैं।

दुरत कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत।

कवि-आँकनु के अरथ लौं, प्रगटि दिखाई देत॥

नायिका ने श्वेत रंग की साड़ी पहन रखी है। श्वेत साड़ी से उसके सभी अंग आवृत्त हैं। उस श्वेत साड़ी के नीचे वक्षस्थल पर उसने इत्र आदि से सुगंधित मटमैले रंग की कंचुकी धारण कर रखी है। इन दोनों वस्त्रों के बीच आवृत्त होने पर भी नायिका के स्तन सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शकों के लिए छिपे हुए नहीं रहते हैं। भाव यह है कि अंकुरित यौवना नायिका के स्तन श्वेत साड़ी में

छिपाए नहीं छिप रहे हैं। वे उसी प्रकार स्पष्ट हो रहे हैं जिस प्रकार किसी कवि के अक्षरों का अर्थ प्रकट होता रहता है। वास्तव में कवि के अक्षरों में अर्थ भी स्थूलत: आवृत्त किंतु सूक्ष्म दृष्टि के लिए प्रकट रहता है।

तो पर वारौं उरबसी, सुनि, राधिके सुजान।

तू मोहन कैं उर बसी, है उरबसी-समान॥

हे सुजान राधिके, तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारे रूप-सौंदर्य पर उर्वशी जैसी नारी को भी न्यौछावर कर सकता हूँ। कारण यह है कि तुम तो मेरे हृदय में उसी प्रकार निवास करती हो, जिस प्रकार उर्वशी नामक आभूषण हृदय में निवास करता है।

भई जु छवि तन बसन मिलि, बरनि सकैं सुन बैन।

आँग-ओप आँगी दुरी, आँगी आँग दुरै न॥

नायिका केवल रंग-रूप में सुंदर है अपितु उसके स्तन भी उभार पर हैं। वह चंपकवर्णी पद्मिनी नारी है। उसने अपने रंग के अनुरूप ही हल्के पीले रंग के वस्त्र पहन रखे हैं। परिणामस्वरूप उसके शरीर के रंग में वस्त्रों का रंग ऐसा मिल गया है कि दोनों के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता है। अर्थात् नायिका के शरीर की शोभा से उसकी अंगिया छिप गई है, किंतु अंगिया के भीतर उरोज नहीं छिप पा रहे हैं। व्यंजना यह है कि नायिका ऐसे वस्त्र पहने हुए है कि उसके स्तनों का सौंदर्य केवल उजागर हो रहा है, अपितु अत्यंत आकर्षक भी प्रतीत हो रहा है।

मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।

जा तन की झाँई परैं, स्यामु हरित-दुति होइ॥

इस दोहे के तीन अलग-अलग अर्थ बताए गए हैं।

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